Monday, November 23, 2009

mat likho......

माना तुम्हारी कवितायेँ

दिलों की उदासी दूर करती हैं

पर बूढी माँ के पास

बैठ कर आलू छीलना

ज्यादा अच्छा हैं

माना तुम्हारे गीत

कुछ सोचने को मजबूर करते हैं

पर नन्हे भतीजे की

नादान शरारत में

शामिल हो जाना बेहतर है

माना तुम्हारे छंद बना लेते हैं

हर दिल में जगह

पर भीड़ भरी बस में

अपनी सीट पर

किसी को बैठा देना

कहीं अच्छा है

माना तुम्हारे विचारों में

आक्रोश है

सड़ी  गली व्यवस्था के प्रति

पर पिता की डांट

चुपचाप सुन लेना

कहीं बेहतर है

सच मानो

ये गीत ये काव्य ये छंद

चाहे मत लिखो

हो सके तो इन्हें जियो

कविता लिखने से

कविता जीना

कहीं अच्छा कहीं बेहतर है

एक लड़की........एक कविता

कवितायें अक्सर
लड़कियों की तरह होती हैं
बेवजह मुस्काती
चुपचाप चलती
पल्लू संभालती
लड़ती झगड़ती
देर तक सजती सवरती
मन की देहली
पर खेलती रहती हैं
बाहर कागज़ की दुनिया से
बहुत घबराती हैं
अजनबियों से शर्माती हैं
फिर जैसे देख बाप की मजबूरी
डिग्रियां सम्हाल
दफ्तरों में जाती हैं
छोटी सी नौकरी की खातिर
बसों की क्यू में
सुबह शाम नज़र आती हैं
लाखों निगाहों का सामना करती
किसी नदी की तरह
बहती चली जाती हैं
लड़कियां भी अक्सर
कविताओं की तरह ही होती हैं