Monday, November 23, 2009

mat likho......

माना तुम्हारी कवितायेँ

दिलों की उदासी दूर करती हैं

पर बूढी माँ के पास

बैठ कर आलू छीलना

ज्यादा अच्छा हैं

माना तुम्हारे गीत

कुछ सोचने को मजबूर करते हैं

पर नन्हे भतीजे की

नादान शरारत में

शामिल हो जाना बेहतर है

माना तुम्हारे छंद बना लेते हैं

हर दिल में जगह

पर भीड़ भरी बस में

अपनी सीट पर

किसी को बैठा देना

कहीं अच्छा है

माना तुम्हारे विचारों में

आक्रोश है

सड़ी  गली व्यवस्था के प्रति

पर पिता की डांट

चुपचाप सुन लेना

कहीं बेहतर है

सच मानो

ये गीत ये काव्य ये छंद

चाहे मत लिखो

हो सके तो इन्हें जियो

कविता लिखने से

कविता जीना

कहीं अच्छा कहीं बेहतर है

3 comments:

शशि "सागर" said...

vinit babu...
mujhe to pata hee nahee tha ki blog kee duniyaa me aap bhee hain...
kya baat kahee hai aapne apnee kavitaa k maadhyam se....
........ho sakataa hai ti ise jiyo"...waah kya soch hai...
mazaa aa gaya aapke vichaaron ko jaankar.

chakresh singh said...

सच मानो

ये गीत ये काव्य ये छंद

चाहे मत लिखो

हो सके तो इन्हें जियो


maan gaye sir ji ... bahut khoob

Tapesh said...

wah ..waah...