Tuesday, November 23, 2010

जब ग़ज़ल मुश्किल हुई

हमसफर यूँ अब मेरी मुश्किल हुई
राह जब आसां हुई, मुश्किल हुई

हम तो मुश्किल में सुकूं से जी लिए
मुश्किलों को पर बड़ी मुश्किल हुयी

ख्वाब भी आसान कब थे देखने
आँख पर जब भी खुली, मुश्किल हुई

फिर अड़ा है शाम से जिद पे दिया
फिर हवाओं को बड़ी मुश्किल हुई

वो बसा है जिस्म की रग-रग में यूँ
जब भी पुरवाई चली, मुश्किल हुई

रोज़ दिल को हमने समझाया मगर
दिन ब दिन ये दिल्लगी मुश्किल हुई

मानता था सच मेरी हर बात को
जब नज़र उस से मिली मुश्किल हुई

होश दिन में यूँ भी रहता है कहाँ
शाम जब ढलने लगी मुश्किल हुई

क़र्ज़ कोई कब तलक देता रहे
हम से रखनी दोस्ती मुश्किल हुई

चाँद तारे तो बहुत ला कर दिए
उसने साड़ी मांग ली, मुश्किल हुई

नन्हे मोजों को पड़ेगी ऊन कम
आ रही है फिर ख़ुशी, मुश्किल हुई

रोज़ थोड़े हम पुराने हो चले
रोज़ ही कुछ फिर नयी मुश्किल हुई

जो सलीका बज़्म का आया हमें
बात करनी और भी मुश्किल हुई

और सब मंजूर थी दुशवारियां
जब ग़ज़ल मुश्किल हुई, मुश्किल हुई

Monday, November 1, 2010

यूँ दिवाली मना लीजिये

दिल जरा जगमगा लीजिये
यूँ दिवाली मना लीजिये

रौशनी को दिए हैं बहुत
अब ये सूरज बुझा लीजिये

उसकी जिद है पुराने हैं गम
कुछ न कुछ तो नया लीजिये

आप की भी सुनेगा खुदा
चार पैसे कमा लीजिये

फीकी पड़ जायेगी फुलझड़ी
बस जरा खिलखिला लीजिये

रंगो रोगन जरूरी नहीं
घर को घर तो बना लीजिये

ना रहेगी अमावस सनम
रुख से जुल्फें हटा लीजिये

पास तो बैठिये चैन से
इतनी जहमत उठा लीजिये

और तोहफे ना कुछ चाहिए
ये ग़ज़ल गुनगुना लीजिये ..

Thursday, September 30, 2010

वो इक चाँद का टुकड़ा

कहते हैं खुदा उसको कभी जानेजिगर भी
ना भूल उसे पाए हैं गुजरी ये उमर भी

वो रूप जवानी वो अदा चाल कहूँ क्या
देखा तो कभी दूर सुना था न जिकर भी

गंगा में नहाता था वो इक चाँद का टुकड़ा
देखी है इन आँखों ने कयामत की सहर भी

भीगे से बदन से वो टपकती हुई बूंदे
पानी में जो गिरती थीं मचलती थी लहर भी

बहते हुए पानी पे पड़े अक्स जो उसका
दरिया का चले बस तो वहीँ जाए ठहर भी

खुशबू थी फिजाओं में जो उस शोख बदन की
पूरब की हवाओं में है अब तक वो असर भी

पूजा का ले के थाल चली फूलों की डाली
चम्पा भी चमेली भी गुलाबों का अतर भी

मंदिर में वो जो सर को झुकाए सी खड़ी है
सजदे में झुके देव महादेव के सर भी

इतना ही है बस याद कि मुस्का रहे थे वो
फिर बाद का ना होश है ना कोई खबर भी

गुल खार दिनोरात हिज्र और वस्ल भी
जलवा है उसी नूर का देखूं मैं जिधर भी

आते हैं कभी छम से वो जब ख्वाब में चल के
होती है ग़ज़ल खूब कि मिलती है बहर भी

Friday, September 24, 2010

खफा हो के हमसे दिखाओ तो जानें

खफा हो के हमसे दिखाओ तो जानें
कभी प्यार इतना जताओ तो जाने

यकीं कैसे कर लें के रूठे हुए हो
हमें देख कर मुस्कुराओ तो जाने

खुदा तुम को यूँ ही न कहते हैं जानां
सुनो कुछ कभी कुछ सुनाओ तो जानें

न आने के लाखों बहाने हैं तुम पे
जो ख्वाबों में भी तुम न आओ तो जानें

न जाने समन्दर हैं ये कितने गहरे
जरा हमसे नज़रें मिलाओ तो जानें

चिरागों से रौशन कहाँ होंगी रातें
हमारी तरह दिल जलाओ तो जानें

सवेरे सवेरे कहाँ गम है सूरज
जो चेहरे से जुल्फें हटाओ तो जानें

हैं मशहूर तेरी मुहब्बत के किस्से
हमें भी कभी आजमाओ तो जानें

सुना है कि पढ़ते हो तुम खूब मुझको
कभी जो मुझे गुनगुनाओ तो जानें

Thursday, September 23, 2010

अजीब मंज़र

बड़ा अजीब मंज़र है .......कुछ लोग मुझे विनीत भाई कहते हैं .......कुछ लोग विनीत बाबु ......आज मेरे चाहने वालों के दो गुट बन गए हैं ......भाई कहने वालों में और बाबु कहने वालों में ठन गयी है .......मेरे ही नाम का वास्ता दे कर दोनों गुट एक दुसरे से बहस में उलझे हैं ......बहस इस कदर बढ़ गयी है की नौबत हाथापाई की आ गयी है ......मेरा कौन सा नाम ज्यादा अच्छा है ..मुझे तो नहीं पता ......पर मेरे चाहने वालों को मुझसे ज्यादा पता है ...धीरे धीरे झगडा इतना बढ़ गया कि मामला अदालत तक पहुँच गया है ..मेरे स्मारक की जमीन को लेकर परेशानी ज्यादा है ..दोनों गुट उस पे अपना कब्ज़ा चाहते हैं ..आज अगर मैं खुद जिन्दा हो कर भी इन्हें आ कर समझाऊं तो ये समझने को तैयार नहीं हैं ..इतनी बहस के बीच मुझे अपने आस्तित्व से ही नफरत सी होने लगी है ........

अचानक पसीने से तरबतर मेरी आँख खुली ....मुझे अपने सपने पर बड़ी हंसी आ रही है .. सामने सुबह का अखबार पड़ा है .....24 सितम्बर ..की वजह से पूरा देश दहशत में है ......अब मुझे अपने सपने पर रोना आ रहा है ....

Tuesday, September 21, 2010

क्यूँ ग़ज़ल ही फिर हमारी गुलफिशां होने लगी








गुफ्तगू यूँ उनसे अपनी बेजुबां होने लगी
अब खलिश भी बस इशारों में बयाँ होने लगी

जान कर अनजान सा यूँ पूछे है कातिल मेरा
" जान जाने की वजह क्या जाने जाँ होने लगी "

आम हैं चर्चे शहर में मेरी बदनामी के अब
मेरी परछाईं जो मेरी राजदां होने लगी

ईंट पत्थर के घरों में दिन गुज़ारा हम किये
शाम होते ही तलाशे आशियाँ होने लगी

पास जब कुछ भी नहीं तो गम भी दिल में क्यूँ रहे
क्यूँ ना फाकामस्ती मेरी पासवां होने लगी

उम्र का होता दिखा यूँ तो हर इक शै पर असर
मुश्किले दिल क्यूँ मगर फिर फिर जवां होने लगी

अब सफ़र का ये अकेलापन नहीं खलता मुझे
मेरी तन्हाई यूँ मेरा कारवाँ होने लगी

है चहक गुम बुलबुलों कि क्यूँ मगर हैरान हो
जब जुबां उल्लू की शाने गुलसिताँ होने लगी

तल्खियां जीते रहे हम तल्खियां पीते रहे
क्यूँ ग़ज़ल ही फिर हमारी गुलफिशां होने लगी


Monday, September 20, 2010

दोनों अपनी बात पे कायम रहे.....

तुम रहे ना अब तुम्हारे गम रहे
अब कहाँ वो पहले जैसे हम रहे

रंज से खूंगर न हो पायें हैं हम
गालिबन तोहफे तुम्हारे कम रहे

तेरी जुल्फों के न साए थे मगर
जिन्दगी भर कितने पेंचोखम रहे

बात करते भी तो कैसे करते हम
दोनों अपनी बात पे कायम रहे

बस्तियां क्या बादलों की हैं वहां
मौसमे दिल क्यूँ हमेशा नम रहे

रात उन हाथों में ही पत्थर दिखे
थामते दिन भर जो ये परचम रहे

एक लम्हा भी न सोये चैन से
ख्वाब ऐसे आँखों में हरदम रहे

ये रकीबों की रही बदकिस्मती
मेरे कोई दोस्त ना हमदम रहे

पाँव फ़ैलाने को जी तो है बहुत
ये बरसती छत अगर जो थम रहे

जिक्र उसका फिर करे मेरी ग़ज़ल
नासमझ! क्या टाट में रेशम रहे!

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

Wednesday, September 1, 2010

...... मर गया


क्यूँ कहते हैं आखिर ये सब ..जो डर गया सो मर गया
मेरा तो सारा डर गया मैं जब से देखो मर गया

अब आईने को देख कर मैं सोचता हूँ बस यही
है कौन ये जिंदा है जो, वो कौन था जो मर गया

क्यूँ हैं तेरी आँखें ये नम किस बात का अफ़सोस है
जिंदा यहाँ पे कौन था.. जो सोचते हो मर गया

इन ख्वाहिशों ने क़त्ल यूँ मेरा किया चुपचाप से
जिस रोज़ मैं पैदा हुआ उस शाम ही को मर गया

मेरी हैसियत कुछ और थी मेरी कैफियत कुछ और थी
किश्तों पे मैंने गम लिए.. ना भर सका तो मर गया

ना जाने कितनी ही दफा ये वाकया अब हो चुका
जिन्दा रहूँ मैं इसलिए इक बार फिर लो मर गया

जब मौत ने मेरा पता पूछा तो लोगों ने कहा
रहता था जो इन्सां यहाँ मुद्दत हुयी वो मर गया

कैसे जियूं कैसे मरुँ इस दिल का अपने क्या करूँ
तुझे पा के तुझ पे मर गया तुझे जब दिया खो, मर गया

नफरत सही मुझसे मगर मैं जानता हूँ आज भी
आएगा वो दौड़ा हुआ बस इतना कह दो मर गया

तेरी याद की खुशबू नहीं तेरे रूप का चर्चा नहीं
मैं जब कहूँ ऐसी ग़ज़ल उस रोज़ समझो मर गया

और बेहतर कलाम क्या करते


तेरे पहलू में शाम क्या करते
उम्र तेरी थी , नाम क्या करते

तेरी महफ़िल में हम जो आ जाते
लोग किस्से तमाम क्या करते

आसमां तेरा ये जमीं तेरी
हम जो करते मुकाम क्या करते

होश में आते हम भला क्यूँ कर
सारे खाली थे जाम , क्या करते

कशमकश आग की उसूलों से
मौम के इंतजाम क्या करते

सच के फिर साथ चल नहीं पाए
झूठ पे थे इनाम, क्या करते

कांच का था ये दिल जो टूटा है
इत्तला खासोआम क्या करते

जब से होने लगे खुदा बौने
कीये झुक झुक सलाम, क्या करते

सूलियां और दिवार तलवारें
गर न होतीं निजाम क्या करते

फिर लड़े खूब मंदिरोमस्जिद
क्या खुदा करते, राम क्या करते

नाम तेरा ही बस लिखा हमने
और बेहतर कलाम क्या करते

Wednesday, August 25, 2010

क्या बात है!!

गुमसुम हैं क्यूँ ? क्यूँ हैं खफा! कुछ तो बता ,क्या बात है?
यूँ भी बहुत.. है खूब तू.. पर ये अदा! ..क्या बात है!!

ये भी चलो.. अच्छा हुआ.. दोनों रहे खुश इस तरह
तुम ने कहा.. 'है बात क्या '..मैंने सुना.. 'क्या बात है!'

जी लीजिये.. मर जाइए.. आ जाइए.. ना आइये
फुरसत किसे ..है आजकल.. पूछे जरा क्या बात है?

चाहत तेरी.. चर्चा तेरा.. खुशबू तेरी जलवा तेरा
महफ़िल हो या.. गुलशन कोई.. इसके सिवा क्या बात है.

यूँ टपकी है.. फिर से मेरे.. कमरे की वो.. छत रात भर
जैसे कोई ..रोता रहा.. कह ना सका ..क्या बात है.

वाकिफ हूँ मैं.. दीवारों की.. आदत से यूँ अच्छी तरह
मैंने कहा ..कुछ भी नहीं.. सुनता रहा क्या बात है.

चाहा बहुत.. शिकवा करूँ ..अबकि खुदा.. से मैं लडूं
तोहफा मिला ..जब दर्द का.. कहना पड़ा क्या बात है!!

जाने लगीं.. साँसे मेरी.. आने लगा रुखसत का दिन
अब जा केये.. आया समझ.. मसला है क्या, क्या बात है.

नासेह बड़ी.. मुश्किल में है.. क्या तो कहे.. क्या ना कहे
खुद ही कही.. हमने ग़ज़ल.. खुद ही कहा.. क्या बात है!!

..... मर गया


क्यूँ कहते हैं आखिर ये सब ..जो डर गया सो मर गया
मेरा तो सारा डर गया मैं जब से देखो मर गया

अब आईने को देख कर मैं सोचता हूँ बस यही
है कौन ये जिंदा है जो, वो कौन था जो मर गया

क्यूँ हैं तेरी आँखें ये नम किस बात का अफ़सोस है
जिंदा यहाँ पे कौन था.. जो सोचते हो मर गया

इन ख्वाहिशों ने क़त्ल यूँ मेरा किया चुपचाप से
जिस रोज़ मैं पैदा हुआ उस शाम ही को मर गया

मेरी हैसियत कुछ और थी मेरी कैफियत कुछ और थी
किश्तों पे मैंने गम लिए.. ना भर सका तो मर गया

ना जाने कितनी ही दफा ये वाकया अब हो चुका
जिन्दा रहूँ मैं इसलिए इक बार फिर लो मर गया

जब मौत ने मेरा पता पूछा तो लोगों ने कहा
रहता था जो इन्सां यहाँ मुद्दत हुयी वो मर गया

कैसे जियूं कैसे मरुँ इस दिल का अपने क्या करूँ
तुझे पा के तुझ पे मर गया तुझे जब दिया खो, मर गया

नफरत सही मुझसे मगर मैं जानता हूँ आज भी
आएगा वो दौड़ा हुआ बस इतना कह दो मर गया

तेरी याद की खुशबू नहीं तेरे रूप का चर्चा नहीं
मैं जब कहूँ ऐसी ग़ज़ल उस रोज़ समझो मर गया

Monday, July 26, 2010

ओ बंदापरवर

सलाम तुझ को करें भी कैसे


छिपा के खुद को रखें भी कैसे

कि चुप ना बैठे ये दिल जरा सा

जो हम कहें कुछ कहें भी कैसे





छिपा है तुझसे क्या बंदापरवर

तेरी नज़र से बचें भी कैसे

मगर ये चादर हैं इतनी मैली

तुझे कभी हम दिखें भी कैसे



हैं लाखों अरमां हैं लाखो शिकवे

कहें, ये जुर्रत करें भी कैसे

मैं जानता हूँ, तू जानता है

कि तुझको गाफिल कहें भी कैसे



जो प्यास दी उसका शुक्रिया है

मगर करम ये कियें भी कैसे

दिए हमें जाम सारे खाली

अगर पियें तो पियें भी कैसे



जो जर्रे जर्रे में तू ही तू है

तो दूर तुझसे रहे भी कैसे

जहां के मालिक जहाँ में तेरे

जो हम न भायें रुकें भी कैसे

Friday, July 23, 2010

नाम अपना मुहब्बत बताया करे

अपने बन्दों को जब आजमाया करे
शै खुदा तेरे जैसी बनाया करे

आये काफिर यकीं पे तुझे देख कर
पीर को तू खुदा भी भुलाया करे

रिंद देखे तो होशों में आये मगर
शेख देखे तुझे लडखडाया करे

चेन खोये उमर भर का इक पल में वो
जो नज़र तुझ से कोई मिलाया करे

हाथ तू जो उठा के ले अंगड़ाइयां
गश फरिश्तों को भी जान आया करे

चाँद जो देख ले तुझको इकबारगी
आसमाँ अपने सर पे उठाया करे

जो घटा तेरी जुल्फों पे नज़रे करे
आंसुओं से जहाँ को भिगाया करे

आँख चाहें तुझे एकटक देखना
है फिकर क्या इन्हें जान जाया करे

छू के तुझको जो गुजरे जरा हौले से
वो हवा खुशबुओं में नहाया करे

तुमको चाहे दुआ दे या पूजा करे
दिल बिचारा समझ ये ना पाया करे

लोग कहते हैं कातिल मसीहा तुझे
नाम अपना मुहब्बत बताया करे

Friday, July 16, 2010

जरा जरा


करते हो हमसे जान मुहब्बत जरा जरा

अच्छी नहीं है इतनी किफायत जरा जरा



माना कि गम हैं और भी इक इश्क के सिवा

फिर भी निकाला तो करो फुर्सत जरा जरा



जो रूठने से इश्क मुकम्मल भी गर बने

जाँनाँ निभाना पर ये रवायत जरा जरा



'ना' कह लो चाहे खूब तुम अपनी जुबान से

'हाँ' कर रही हैं आँख शरारत जरा जरा



होने लगे हो और हंसी दम ब दम जो तुम

बढ़ने लगी हैं दिल कि मुसीबत जरा जरा



बन ठन के निकले तुम तो फ़रिश्ते ये कह उठे

लो देखो आ रही है कयामत जरा जरा



प्यासे लबों के सामने सागर तो है मगर

मिलती है तिशनगी को इजाजत जरा जरा



टूटे हैं जाम सब्र के साकी को देख कर

के हो ना जाएँ सारी हिदायत जरा जरा



इक बार मेरी आँखों से जो देख लो अगर

हो जाएँगी ये सारी शिकायत जरा जरा



ना बीत जाए रात ये होने को है सुबह

होने लगा है चाँद भी रुखसत जरा जरा



आ जाये लब पे तेरे जो थोड़ी सी भी हंसी

मेरी ग़ज़ल पे होगी इनायत जरा जरा

Monday, July 12, 2010

जेब में शाम ले के चले

अपने ईनाम ले के चले
कितने इल्जाम ले के चले

चीखती हैं ये खामोशियाँ
दिल में कोहराम ले के चले

जितने रुसवा हुए इश्क में
और भी नाम ले के चले

बिक गए आज बाज़ार में
दर्द के दाम ले के चले

दिख गए ख्वाब जब भी कभी
चैनो आराम ले के चले

ढूंढते हैं कोई गम नया
जो हमें थाम, ले के चले

कौन जाने कहाँ हो थकन
जेब में शाम ले के चले

जब भी बहके हमारे कदम
और इक जाम ले के चले

खो के पाया है सारा जहाँ
हम ये पैगाम ले के चले

Wednesday, July 7, 2010

शराब चीज़ बुरी है..........

शराब चीज़ बुरी है तो फिर भली क्या है
बेखुदी है गलत तो कह दो फिर सही क्या है


न सूझता है तेरा मेरा कुछ मैखानों में
है ये अँधेरा तो फिर बोलो रौशनी क्या है


जो डूबे जाम में तो अपनी सब लगे दुनिया
मकान क्या है मोहल्ला क्या और गली क्या है


कभी मिलोगे अगर सांझ ढले हम से तुम
ये जान लोगे मेरी जान जिंदगी क्या है


बुरा ना कहता कभी तूने जो चखी होती
तुझे पता ही नहीं तेरी भी कमी क्या है


गमों के दरिया भी सागर में समा जाते हैं
आ बैठ पास जरा चख ले तू ख़ुशी क्या है


ये होश वाले भी क्या जाने बंदगी कि जिन्हें
खबर नहीं कि खुदी क्या है बेखुदी क्या है


इस कदर रखते हैं हम रिंद होंसले अपने
खुदा से पूछते हैं अब रजा तेरी क्या है


लगी दिल की नहीं है कोई दिल्लगी प्यारे
लगे जो चोट ना सीने पे तो लगी क्या है


बहक ना जाऊं थोड़ी और पिला और पिला
जरा आने दे मुझे होश अभी पी क्या है


थोड़ी होने दो पुरानी अभी ताज़ा है ग़ज़ल
रुक के देगी ये मज़ा खूब कि जल्दी क्या है