Wednesday, August 25, 2010

..... मर गया


क्यूँ कहते हैं आखिर ये सब ..जो डर गया सो मर गया
मेरा तो सारा डर गया मैं जब से देखो मर गया

अब आईने को देख कर मैं सोचता हूँ बस यही
है कौन ये जिंदा है जो, वो कौन था जो मर गया

क्यूँ हैं तेरी आँखें ये नम किस बात का अफ़सोस है
जिंदा यहाँ पे कौन था.. जो सोचते हो मर गया

इन ख्वाहिशों ने क़त्ल यूँ मेरा किया चुपचाप से
जिस रोज़ मैं पैदा हुआ उस शाम ही को मर गया

मेरी हैसियत कुछ और थी मेरी कैफियत कुछ और थी
किश्तों पे मैंने गम लिए.. ना भर सका तो मर गया

ना जाने कितनी ही दफा ये वाकया अब हो चुका
जिन्दा रहूँ मैं इसलिए इक बार फिर लो मर गया

जब मौत ने मेरा पता पूछा तो लोगों ने कहा
रहता था जो इन्सां यहाँ मुद्दत हुयी वो मर गया

कैसे जियूं कैसे मरुँ इस दिल का अपने क्या करूँ
तुझे पा के तुझ पे मर गया तुझे जब दिया खो, मर गया

नफरत सही मुझसे मगर मैं जानता हूँ आज भी
आएगा वो दौड़ा हुआ बस इतना कह दो मर गया

तेरी याद की खुशबू नहीं तेरे रूप का चर्चा नहीं
मैं जब कहूँ ऐसी ग़ज़ल उस रोज़ समझो मर गया

1 comment:

Tarun / तरुण / தருண் said...

मेरी हैसियत कुछ और थी मेरी कैफियत कुछ और थी
किश्तों पे मैंने गम लिए.. ना भर सका तो मर गया

bahut khub , har sher umdaa ban padaa hai