हमसफर यूँ अब मेरी मुश्किल हुई
राह जब आसां हुई, मुश्किल हुई
हम तो मुश्किल में सुकूं से जी लिए
मुश्किलों को पर बड़ी मुश्किल हुयी
ख्वाब भी आसान कब थे देखने
आँख पर जब भी खुली, मुश्किल हुई
फिर अड़ा है शाम से जिद पे दिया
फिर हवाओं को बड़ी मुश्किल हुई
वो बसा है जिस्म की रग-रग में यूँ
जब भी पुरवाई चली, मुश्किल हुई
रोज़ दिल को हमने समझाया मगर
दिन ब दिन ये दिल्लगी मुश्किल हुई
मानता था सच मेरी हर बात को
जब नज़र उस से मिली मुश्किल हुई
होश दिन में यूँ भी रहता है कहाँ
शाम जब ढलने लगी मुश्किल हुई
क़र्ज़ कोई कब तलक देता रहे
हम से रखनी दोस्ती मुश्किल हुई
चाँद तारे तो बहुत ला कर दिए
उसने साड़ी मांग ली, मुश्किल हुई
नन्हे मोजों को पड़ेगी ऊन कम
आ रही है फिर ख़ुशी, मुश्किल हुई
रोज़ थोड़े हम पुराने हो चले
रोज़ ही कुछ फिर नयी मुश्किल हुई
जो सलीका बज़्म का आया हमें
बात करनी और भी मुश्किल हुई
और सब मंजूर थी दुशवारियां
जब ग़ज़ल मुश्किल हुई, मुश्किल हुई
Tuesday, November 23, 2010
Monday, November 1, 2010
यूँ दिवाली मना लीजिये
दिल जरा जगमगा लीजिये
यूँ दिवाली मना लीजिये
रौशनी को दिए हैं बहुत
अब ये सूरज बुझा लीजिये
उसकी जिद है पुराने हैं गम
कुछ न कुछ तो नया लीजिये
आप की भी सुनेगा खुदा
चार पैसे कमा लीजिये
फीकी पड़ जायेगी फुलझड़ी
बस जरा खिलखिला लीजिये
रंगो रोगन जरूरी नहीं
घर को घर तो बना लीजिये
ना रहेगी अमावस सनम
रुख से जुल्फें हटा लीजिये
पास तो बैठिये चैन से
इतनी जहमत उठा लीजिये
और तोहफे ना कुछ चाहिए
ये ग़ज़ल गुनगुना लीजिये ..
यूँ दिवाली मना लीजिये
रौशनी को दिए हैं बहुत
अब ये सूरज बुझा लीजिये
उसकी जिद है पुराने हैं गम
कुछ न कुछ तो नया लीजिये
आप की भी सुनेगा खुदा
चार पैसे कमा लीजिये
फीकी पड़ जायेगी फुलझड़ी
बस जरा खिलखिला लीजिये
रंगो रोगन जरूरी नहीं
घर को घर तो बना लीजिये
ना रहेगी अमावस सनम
रुख से जुल्फें हटा लीजिये
पास तो बैठिये चैन से
इतनी जहमत उठा लीजिये
और तोहफे ना कुछ चाहिए
ये ग़ज़ल गुनगुना लीजिये ..
Thursday, September 30, 2010
वो इक चाँद का टुकड़ा
कहते हैं खुदा उसको कभी जानेजिगर भी
ना भूल उसे पाए हैं गुजरी ये उमर भी
वो रूप जवानी वो अदा चाल कहूँ क्या
देखा तो कभी दूर सुना था न जिकर भी
गंगा में नहाता था वो इक चाँद का टुकड़ा
देखी है इन आँखों ने कयामत की सहर भी
भीगे से बदन से वो टपकती हुई बूंदे
पानी में जो गिरती थीं मचलती थी लहर भी
बहते हुए पानी पे पड़े अक्स जो उसका
दरिया का चले बस तो वहीँ जाए ठहर भी
खुशबू थी फिजाओं में जो उस शोख बदन की
पूरब की हवाओं में है अब तक वो असर भी
पूजा का ले के थाल चली फूलों की डाली
चम्पा भी चमेली भी गुलाबों का अतर भी
मंदिर में वो जो सर को झुकाए सी खड़ी है
सजदे में झुके देव महादेव के सर भी
इतना ही है बस याद कि मुस्का रहे थे वो
फिर बाद का ना होश है ना कोई खबर भी
गुल खार दिनोरात हिज्र और वस्ल भी
जलवा है उसी नूर का देखूं मैं जिधर भी
आते हैं कभी छम से वो जब ख्वाब में चल के
होती है ग़ज़ल खूब कि मिलती है बहर भी
ना भूल उसे पाए हैं गुजरी ये उमर भी
वो रूप जवानी वो अदा चाल कहूँ क्या
देखा तो कभी दूर सुना था न जिकर भी
गंगा में नहाता था वो इक चाँद का टुकड़ा
देखी है इन आँखों ने कयामत की सहर भी
भीगे से बदन से वो टपकती हुई बूंदे
पानी में जो गिरती थीं मचलती थी लहर भी
बहते हुए पानी पे पड़े अक्स जो उसका
दरिया का चले बस तो वहीँ जाए ठहर भी
खुशबू थी फिजाओं में जो उस शोख बदन की
पूरब की हवाओं में है अब तक वो असर भी
पूजा का ले के थाल चली फूलों की डाली
चम्पा भी चमेली भी गुलाबों का अतर भी
मंदिर में वो जो सर को झुकाए सी खड़ी है
सजदे में झुके देव महादेव के सर भी
इतना ही है बस याद कि मुस्का रहे थे वो
फिर बाद का ना होश है ना कोई खबर भी
गुल खार दिनोरात हिज्र और वस्ल भी
जलवा है उसी नूर का देखूं मैं जिधर भी
आते हैं कभी छम से वो जब ख्वाब में चल के
होती है ग़ज़ल खूब कि मिलती है बहर भी
Friday, September 24, 2010
खफा हो के हमसे दिखाओ तो जानें
खफा हो के हमसे दिखाओ तो जानें
कभी प्यार इतना जताओ तो जाने
यकीं कैसे कर लें के रूठे हुए हो
हमें देख कर मुस्कुराओ तो जाने
खुदा तुम को यूँ ही न कहते हैं जानां
सुनो कुछ कभी कुछ सुनाओ तो जानें
न आने के लाखों बहाने हैं तुम पे
जो ख्वाबों में भी तुम न आओ तो जानें
न जाने समन्दर हैं ये कितने गहरे
जरा हमसे नज़रें मिलाओ तो जानें
चिरागों से रौशन कहाँ होंगी रातें
हमारी तरह दिल जलाओ तो जानें
सवेरे सवेरे कहाँ गम है सूरज
जो चेहरे से जुल्फें हटाओ तो जानें
हैं मशहूर तेरी मुहब्बत के किस्से
हमें भी कभी आजमाओ तो जानें
सुना है कि पढ़ते हो तुम खूब मुझको
कभी जो मुझे गुनगुनाओ तो जानें
कभी प्यार इतना जताओ तो जाने
यकीं कैसे कर लें के रूठे हुए हो
हमें देख कर मुस्कुराओ तो जाने
खुदा तुम को यूँ ही न कहते हैं जानां
सुनो कुछ कभी कुछ सुनाओ तो जानें
न आने के लाखों बहाने हैं तुम पे
जो ख्वाबों में भी तुम न आओ तो जानें
न जाने समन्दर हैं ये कितने गहरे
जरा हमसे नज़रें मिलाओ तो जानें
चिरागों से रौशन कहाँ होंगी रातें
हमारी तरह दिल जलाओ तो जानें
सवेरे सवेरे कहाँ गम है सूरज
जो चेहरे से जुल्फें हटाओ तो जानें
हैं मशहूर तेरी मुहब्बत के किस्से
हमें भी कभी आजमाओ तो जानें
सुना है कि पढ़ते हो तुम खूब मुझको
कभी जो मुझे गुनगुनाओ तो जानें
Thursday, September 23, 2010
अजीब मंज़र
बड़ा अजीब मंज़र है .......कुछ लोग मुझे विनीत भाई कहते हैं .......कुछ लोग विनीत बाबु ......आज मेरे चाहने वालों के दो गुट बन गए हैं ......भाई कहने वालों में और बाबु कहने वालों में ठन गयी है .......मेरे ही नाम का वास्ता दे कर दोनों गुट एक दुसरे से बहस में उलझे हैं ......बहस इस कदर बढ़ गयी है की नौबत हाथापाई की आ गयी है ......मेरा कौन सा नाम ज्यादा अच्छा है ..मुझे तो नहीं पता ......पर मेरे चाहने वालों को मुझसे ज्यादा पता है ...धीरे धीरे झगडा इतना बढ़ गया कि मामला अदालत तक पहुँच गया है ..मेरे स्मारक की जमीन को लेकर परेशानी ज्यादा है ..दोनों गुट उस पे अपना कब्ज़ा चाहते हैं ..आज अगर मैं खुद जिन्दा हो कर भी इन्हें आ कर समझाऊं तो ये समझने को तैयार नहीं हैं ..इतनी बहस के बीच मुझे अपने आस्तित्व से ही नफरत सी होने लगी है ........
अचानक पसीने से तरबतर मेरी आँख खुली ....मुझे अपने सपने पर बड़ी हंसी आ रही है .. सामने सुबह का अखबार पड़ा है .....24 सितम्बर ..की वजह से पूरा देश दहशत में है ......अब मुझे अपने सपने पर रोना आ रहा है ....
अचानक पसीने से तरबतर मेरी आँख खुली ....मुझे अपने सपने पर बड़ी हंसी आ रही है .. सामने सुबह का अखबार पड़ा है .....24 सितम्बर ..की वजह से पूरा देश दहशत में है ......अब मुझे अपने सपने पर रोना आ रहा है ....
Tuesday, September 21, 2010
क्यूँ ग़ज़ल ही फिर हमारी गुलफिशां होने लगी
गुफ्तगू यूँ उनसे अपनी बेजुबां होने लगी
अब खलिश भी बस इशारों में बयाँ होने लगी
जान कर अनजान सा यूँ पूछे है कातिल मेरा
" जान जाने की वजह क्या जाने जाँ होने लगी "
आम हैं चर्चे शहर में मेरी बदनामी के अब
मेरी परछाईं जो मेरी राजदां होने लगी
ईंट पत्थर के घरों में दिन गुज़ारा हम किये
शाम होते ही तलाशे आशियाँ होने लगी
पास जब कुछ भी नहीं तो गम भी दिल में क्यूँ रहे
क्यूँ ना फाकामस्ती मेरी पासवां होने लगी
उम्र का होता दिखा यूँ तो हर इक शै पर असर
मुश्किले दिल क्यूँ मगर फिर फिर जवां होने लगी
अब सफ़र का ये अकेलापन नहीं खलता मुझे
मेरी तन्हाई यूँ मेरा कारवाँ होने लगी
है चहक गुम बुलबुलों कि क्यूँ मगर हैरान हो
जब जुबां उल्लू की शाने गुलसिताँ होने लगी
तल्खियां जीते रहे हम तल्खियां पीते रहे
क्यूँ ग़ज़ल ही फिर हमारी गुलफिशां होने लगी
Subscribe to:
Posts (Atom)