Thursday, September 30, 2010

वो इक चाँद का टुकड़ा

कहते हैं खुदा उसको कभी जानेजिगर भी
ना भूल उसे पाए हैं गुजरी ये उमर भी

वो रूप जवानी वो अदा चाल कहूँ क्या
देखा तो कभी दूर सुना था न जिकर भी

गंगा में नहाता था वो इक चाँद का टुकड़ा
देखी है इन आँखों ने कयामत की सहर भी

भीगे से बदन से वो टपकती हुई बूंदे
पानी में जो गिरती थीं मचलती थी लहर भी

बहते हुए पानी पे पड़े अक्स जो उसका
दरिया का चले बस तो वहीँ जाए ठहर भी

खुशबू थी फिजाओं में जो उस शोख बदन की
पूरब की हवाओं में है अब तक वो असर भी

पूजा का ले के थाल चली फूलों की डाली
चम्पा भी चमेली भी गुलाबों का अतर भी

मंदिर में वो जो सर को झुकाए सी खड़ी है
सजदे में झुके देव महादेव के सर भी

इतना ही है बस याद कि मुस्का रहे थे वो
फिर बाद का ना होश है ना कोई खबर भी

गुल खार दिनोरात हिज्र और वस्ल भी
जलवा है उसी नूर का देखूं मैं जिधर भी

आते हैं कभी छम से वो जब ख्वाब में चल के
होती है ग़ज़ल खूब कि मिलती है बहर भी

3 comments:

सुनीता शानू said...

वाह दिल की बातें पूरी तरह से उढेल दी है। बहुत खूब बढिया गज़ल बन गई है।

Pritishi said...

bahut umha .. bahut achcha likhte hain aap. 2-3 rachnayein padhi magar waqt ke abhaav mein tippani poori na likh paoongi ... magar laut kar zaroor aaoongi aapke blog per.

Kripaya word-verification hata dein.

shubhkamnayein
RC

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

उम्दा ग़ज़ल है आपकी.