Tuesday, September 21, 2010

क्यूँ ग़ज़ल ही फिर हमारी गुलफिशां होने लगी








गुफ्तगू यूँ उनसे अपनी बेजुबां होने लगी
अब खलिश भी बस इशारों में बयाँ होने लगी

जान कर अनजान सा यूँ पूछे है कातिल मेरा
" जान जाने की वजह क्या जाने जाँ होने लगी "

आम हैं चर्चे शहर में मेरी बदनामी के अब
मेरी परछाईं जो मेरी राजदां होने लगी

ईंट पत्थर के घरों में दिन गुज़ारा हम किये
शाम होते ही तलाशे आशियाँ होने लगी

पास जब कुछ भी नहीं तो गम भी दिल में क्यूँ रहे
क्यूँ ना फाकामस्ती मेरी पासवां होने लगी

उम्र का होता दिखा यूँ तो हर इक शै पर असर
मुश्किले दिल क्यूँ मगर फिर फिर जवां होने लगी

अब सफ़र का ये अकेलापन नहीं खलता मुझे
मेरी तन्हाई यूँ मेरा कारवाँ होने लगी

है चहक गुम बुलबुलों कि क्यूँ मगर हैरान हो
जब जुबां उल्लू की शाने गुलसिताँ होने लगी

तल्खियां जीते रहे हम तल्खियां पीते रहे
क्यूँ ग़ज़ल ही फिर हमारी गुलफिशां होने लगी

3 comments:

वीना श्रीवास्तव said...

बहुत अच्छी गज़ल कही है
ये शेर बहुत अच्छा लगा

अब सफ़र का ये अकेलापन नहीं खलता मुझे
मेरी तन्हाई यूँ मेरा कारवाँ होने लगी
http://veenakesur.blogspot.com/

अजय कुमार said...

हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

Patali-The-Village said...

बहुत अच्छी गजल लिखी है|