कहते हैं खुदा उसको कभी जानेजिगर भी
ना भूल उसे पाए हैं गुजरी ये उमर भी
वो रूप जवानी वो अदा चाल कहूँ क्या
देखा तो कभी दूर सुना था न जिकर भी
गंगा में नहाता था वो इक चाँद का टुकड़ा
देखी है इन आँखों ने कयामत की सहर भी
भीगे से बदन से वो टपकती हुई बूंदे
पानी में जो गिरती थीं मचलती थी लहर भी
बहते हुए पानी पे पड़े अक्स जो उसका
दरिया का चले बस तो वहीँ जाए ठहर भी
खुशबू थी फिजाओं में जो उस शोख बदन की
पूरब की हवाओं में है अब तक वो असर भी
पूजा का ले के थाल चली फूलों की डाली
चम्पा भी चमेली भी गुलाबों का अतर भी
मंदिर में वो जो सर को झुकाए सी खड़ी है
सजदे में झुके देव महादेव के सर भी
इतना ही है बस याद कि मुस्का रहे थे वो
फिर बाद का ना होश है ना कोई खबर भी
गुल खार दिनोरात हिज्र और वस्ल भी
जलवा है उसी नूर का देखूं मैं जिधर भी
आते हैं कभी छम से वो जब ख्वाब में चल के
होती है ग़ज़ल खूब कि मिलती है बहर भी
Thursday, September 30, 2010
Friday, September 24, 2010
खफा हो के हमसे दिखाओ तो जानें
खफा हो के हमसे दिखाओ तो जानें
कभी प्यार इतना जताओ तो जाने
यकीं कैसे कर लें के रूठे हुए हो
हमें देख कर मुस्कुराओ तो जाने
खुदा तुम को यूँ ही न कहते हैं जानां
सुनो कुछ कभी कुछ सुनाओ तो जानें
न आने के लाखों बहाने हैं तुम पे
जो ख्वाबों में भी तुम न आओ तो जानें
न जाने समन्दर हैं ये कितने गहरे
जरा हमसे नज़रें मिलाओ तो जानें
चिरागों से रौशन कहाँ होंगी रातें
हमारी तरह दिल जलाओ तो जानें
सवेरे सवेरे कहाँ गम है सूरज
जो चेहरे से जुल्फें हटाओ तो जानें
हैं मशहूर तेरी मुहब्बत के किस्से
हमें भी कभी आजमाओ तो जानें
सुना है कि पढ़ते हो तुम खूब मुझको
कभी जो मुझे गुनगुनाओ तो जानें
कभी प्यार इतना जताओ तो जाने
यकीं कैसे कर लें के रूठे हुए हो
हमें देख कर मुस्कुराओ तो जाने
खुदा तुम को यूँ ही न कहते हैं जानां
सुनो कुछ कभी कुछ सुनाओ तो जानें
न आने के लाखों बहाने हैं तुम पे
जो ख्वाबों में भी तुम न आओ तो जानें
न जाने समन्दर हैं ये कितने गहरे
जरा हमसे नज़रें मिलाओ तो जानें
चिरागों से रौशन कहाँ होंगी रातें
हमारी तरह दिल जलाओ तो जानें
सवेरे सवेरे कहाँ गम है सूरज
जो चेहरे से जुल्फें हटाओ तो जानें
हैं मशहूर तेरी मुहब्बत के किस्से
हमें भी कभी आजमाओ तो जानें
सुना है कि पढ़ते हो तुम खूब मुझको
कभी जो मुझे गुनगुनाओ तो जानें
Thursday, September 23, 2010
अजीब मंज़र
बड़ा अजीब मंज़र है .......कुछ लोग मुझे विनीत भाई कहते हैं .......कुछ लोग विनीत बाबु ......आज मेरे चाहने वालों के दो गुट बन गए हैं ......भाई कहने वालों में और बाबु कहने वालों में ठन गयी है .......मेरे ही नाम का वास्ता दे कर दोनों गुट एक दुसरे से बहस में उलझे हैं ......बहस इस कदर बढ़ गयी है की नौबत हाथापाई की आ गयी है ......मेरा कौन सा नाम ज्यादा अच्छा है ..मुझे तो नहीं पता ......पर मेरे चाहने वालों को मुझसे ज्यादा पता है ...धीरे धीरे झगडा इतना बढ़ गया कि मामला अदालत तक पहुँच गया है ..मेरे स्मारक की जमीन को लेकर परेशानी ज्यादा है ..दोनों गुट उस पे अपना कब्ज़ा चाहते हैं ..आज अगर मैं खुद जिन्दा हो कर भी इन्हें आ कर समझाऊं तो ये समझने को तैयार नहीं हैं ..इतनी बहस के बीच मुझे अपने आस्तित्व से ही नफरत सी होने लगी है ........
अचानक पसीने से तरबतर मेरी आँख खुली ....मुझे अपने सपने पर बड़ी हंसी आ रही है .. सामने सुबह का अखबार पड़ा है .....24 सितम्बर ..की वजह से पूरा देश दहशत में है ......अब मुझे अपने सपने पर रोना आ रहा है ....
अचानक पसीने से तरबतर मेरी आँख खुली ....मुझे अपने सपने पर बड़ी हंसी आ रही है .. सामने सुबह का अखबार पड़ा है .....24 सितम्बर ..की वजह से पूरा देश दहशत में है ......अब मुझे अपने सपने पर रोना आ रहा है ....
Tuesday, September 21, 2010
क्यूँ ग़ज़ल ही फिर हमारी गुलफिशां होने लगी
गुफ्तगू यूँ उनसे अपनी बेजुबां होने लगी
अब खलिश भी बस इशारों में बयाँ होने लगी
जान कर अनजान सा यूँ पूछे है कातिल मेरा
" जान जाने की वजह क्या जाने जाँ होने लगी "
आम हैं चर्चे शहर में मेरी बदनामी के अब
मेरी परछाईं जो मेरी राजदां होने लगी
ईंट पत्थर के घरों में दिन गुज़ारा हम किये
शाम होते ही तलाशे आशियाँ होने लगी
पास जब कुछ भी नहीं तो गम भी दिल में क्यूँ रहे
क्यूँ ना फाकामस्ती मेरी पासवां होने लगी
उम्र का होता दिखा यूँ तो हर इक शै पर असर
मुश्किले दिल क्यूँ मगर फिर फिर जवां होने लगी
अब सफ़र का ये अकेलापन नहीं खलता मुझे
मेरी तन्हाई यूँ मेरा कारवाँ होने लगी
है चहक गुम बुलबुलों कि क्यूँ मगर हैरान हो
जब जुबां उल्लू की शाने गुलसिताँ होने लगी
तल्खियां जीते रहे हम तल्खियां पीते रहे
क्यूँ ग़ज़ल ही फिर हमारी गुलफिशां होने लगी
Monday, September 20, 2010
दोनों अपनी बात पे कायम रहे.....
तुम रहे ना अब तुम्हारे गम रहे
अब कहाँ वो पहले जैसे हम रहे
रंज से खूंगर न हो पायें हैं हम
गालिबन तोहफे तुम्हारे कम रहे
तेरी जुल्फों के न साए थे मगर
जिन्दगी भर कितने पेंचोखम रहे
बात करते भी तो कैसे करते हम
दोनों अपनी बात पे कायम रहे
बस्तियां क्या बादलों की हैं वहां
मौसमे दिल क्यूँ हमेशा नम रहे
रात उन हाथों में ही पत्थर दिखे
थामते दिन भर जो ये परचम रहे
एक लम्हा भी न सोये चैन से
ख्वाब ऐसे आँखों में हरदम रहे
ये रकीबों की रही बदकिस्मती
मेरे कोई दोस्त ना हमदम रहे
पाँव फ़ैलाने को जी तो है बहुत
ये बरसती छत अगर जो थम रहे
जिक्र उसका फिर करे मेरी ग़ज़ल
नासमझ! क्या टाट में रेशम रहे!
अब कहाँ वो पहले जैसे हम रहे
रंज से खूंगर न हो पायें हैं हम
गालिबन तोहफे तुम्हारे कम रहे
तेरी जुल्फों के न साए थे मगर
जिन्दगी भर कितने पेंचोखम रहे
बात करते भी तो कैसे करते हम
दोनों अपनी बात पे कायम रहे
बस्तियां क्या बादलों की हैं वहां
मौसमे दिल क्यूँ हमेशा नम रहे
रात उन हाथों में ही पत्थर दिखे
थामते दिन भर जो ये परचम रहे
एक लम्हा भी न सोये चैन से
ख्वाब ऐसे आँखों में हरदम रहे
ये रकीबों की रही बदकिस्मती
मेरे कोई दोस्त ना हमदम रहे
पाँव फ़ैलाने को जी तो है बहुत
ये बरसती छत अगर जो थम रहे
जिक्र उसका फिर करे मेरी ग़ज़ल
नासमझ! क्या टाट में रेशम रहे!
Wednesday, September 1, 2010
...... मर गया
क्यूँ कहते हैं आखिर ये सब ..जो डर गया सो मर गया
मेरा तो सारा डर गया मैं जब से देखो मर गया
अब आईने को देख कर मैं सोचता हूँ बस यही
है कौन ये जिंदा है जो, वो कौन था जो मर गया
क्यूँ हैं तेरी आँखें ये नम किस बात का अफ़सोस है
जिंदा यहाँ पे कौन था.. जो सोचते हो मर गया
इन ख्वाहिशों ने क़त्ल यूँ मेरा किया चुपचाप से
जिस रोज़ मैं पैदा हुआ उस शाम ही को मर गया
मेरी हैसियत कुछ और थी मेरी कैफियत कुछ और थी
किश्तों पे मैंने गम लिए.. ना भर सका तो मर गया
ना जाने कितनी ही दफा ये वाकया अब हो चुका
जिन्दा रहूँ मैं इसलिए इक बार फिर लो मर गया
जब मौत ने मेरा पता पूछा तो लोगों ने कहा
रहता था जो इन्सां यहाँ मुद्दत हुयी वो मर गया
कैसे जियूं कैसे मरुँ इस दिल का अपने क्या करूँ
तुझे पा के तुझ पे मर गया तुझे जब दिया खो, मर गया
नफरत सही मुझसे मगर मैं जानता हूँ आज भी
आएगा वो दौड़ा हुआ बस इतना कह दो मर गया
तेरी याद की खुशबू नहीं तेरे रूप का चर्चा नहीं
मैं जब कहूँ ऐसी ग़ज़ल उस रोज़ समझो मर गया
मेरा तो सारा डर गया मैं जब से देखो मर गया
अब आईने को देख कर मैं सोचता हूँ बस यही
है कौन ये जिंदा है जो, वो कौन था जो मर गया
क्यूँ हैं तेरी आँखें ये नम किस बात का अफ़सोस है
जिंदा यहाँ पे कौन था.. जो सोचते हो मर गया
इन ख्वाहिशों ने क़त्ल यूँ मेरा किया चुपचाप से
जिस रोज़ मैं पैदा हुआ उस शाम ही को मर गया
मेरी हैसियत कुछ और थी मेरी कैफियत कुछ और थी
किश्तों पे मैंने गम लिए.. ना भर सका तो मर गया
ना जाने कितनी ही दफा ये वाकया अब हो चुका
जिन्दा रहूँ मैं इसलिए इक बार फिर लो मर गया
जब मौत ने मेरा पता पूछा तो लोगों ने कहा
रहता था जो इन्सां यहाँ मुद्दत हुयी वो मर गया
कैसे जियूं कैसे मरुँ इस दिल का अपने क्या करूँ
तुझे पा के तुझ पे मर गया तुझे जब दिया खो, मर गया
नफरत सही मुझसे मगर मैं जानता हूँ आज भी
आएगा वो दौड़ा हुआ बस इतना कह दो मर गया
तेरी याद की खुशबू नहीं तेरे रूप का चर्चा नहीं
मैं जब कहूँ ऐसी ग़ज़ल उस रोज़ समझो मर गया
और बेहतर कलाम क्या करते
तेरे पहलू में शाम क्या करते
उम्र तेरी थी , नाम क्या करते
तेरी महफ़िल में हम जो आ जाते
लोग किस्से तमाम क्या करते
आसमां तेरा ये जमीं तेरी
हम जो करते मुकाम क्या करते
होश में आते हम भला क्यूँ कर
सारे खाली थे जाम , क्या करते
कशमकश आग की उसूलों से
मौम के इंतजाम क्या करते
सच के फिर साथ चल नहीं पाए
झूठ पे थे इनाम, क्या करते
कांच का था ये दिल जो टूटा है
इत्तला खासोआम क्या करते
जब से होने लगे खुदा बौने
कीये झुक झुक सलाम, क्या करते
सूलियां और दिवार तलवारें
गर न होतीं निजाम क्या करते
फिर लड़े खूब मंदिरोमस्जिद
क्या खुदा करते, राम क्या करते
नाम तेरा ही बस लिखा हमने
और बेहतर कलाम क्या करते
उम्र तेरी थी , नाम क्या करते
तेरी महफ़िल में हम जो आ जाते
लोग किस्से तमाम क्या करते
आसमां तेरा ये जमीं तेरी
हम जो करते मुकाम क्या करते
होश में आते हम भला क्यूँ कर
सारे खाली थे जाम , क्या करते
कशमकश आग की उसूलों से
मौम के इंतजाम क्या करते
सच के फिर साथ चल नहीं पाए
झूठ पे थे इनाम, क्या करते
कांच का था ये दिल जो टूटा है
इत्तला खासोआम क्या करते
जब से होने लगे खुदा बौने
कीये झुक झुक सलाम, क्या करते
सूलियां और दिवार तलवारें
गर न होतीं निजाम क्या करते
फिर लड़े खूब मंदिरोमस्जिद
क्या खुदा करते, राम क्या करते
नाम तेरा ही बस लिखा हमने
और बेहतर कलाम क्या करते
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